कथा सम्राट – मुंशी प्रेमचंद ज़ब हिन्दी के उपन्यास -क्षेत्र में आये उस समय रुसी उपन्यासों का, जो सामाजिक तथा राजनितिक क्रांति के उपरांत एक नये प्रकार की योजना करने और नयी संस्कृति को जन्म देने का प्रयोग हो रहा था , उसका प्रभाव लेकर आये! उन दिनों एक ओर आर्य-समाज का सुधार- कार्य तो चल ही रहा था, संयोग से जोरदार राजनीतिक आंदोलन का सूत्रपात भी उसी काल में आरम्भ हो चुका था ! इन तीनों प्रवाहों का आधार लेकर मुंशी प्रेमचंद जी ने अपने उपन्यासों की रचना आरम्भ की !उनके प्राय: सभी उपन्यासों में सामयिक जीवन का चित्र सामयिक आंदोलन के रंग में रँगा हुआ दिखाई पड़ता है ! व्यक्तियों के दुःख-सुख की कथा वही एक है, जहाँ तक वह किसी एक वर्ग की प्रतिनिधि है ! जमींदार, रैयत, सन्यासी, दारोगा, क्रन्तिकारी, विधवा, अछूत, या फिर ऐसे ही जो अन्य वर्ग समाज में हैं और नवीन आंदोलनकारियों की दृष्टि में उनकी जो एक समाज-सापेक्ष सत्ता है, उसी घेरे में उनके उपन्यास भी घूमते हैं! परन्तु वे अपने इन वर्ग प्रतिनिधि पात्रों को एक दूसरे के सम्पर्क में लाने के लिए स्वाभाविक परिस्थितियों की योजना करने में सिद्धहस्त हैं ! उनका लक्ष्य सामाजिक चित्रण के साथ -साथ आंदोलन का समर्थन भी है और इन दोनों का समन्वय उनकी उपन्यास-कला जहाँ एक ओर नहीं कर सकी, क्योंकि उस समय आंदोलन की पृष्ठभूमि में झारखण्डियों द्वारा किया जा रहा आंदोलन उनकी कलम से अछूता रह गया ! जबकि “डिस्टिक्ट ऑफ शाहाबाद “-1812/13, फ्रांसिस बुकानन, ने -तुतला भवानी, ताराचंडी, फूलवारी आदि 11 आदिवासी राजाओं के शिलालेखों का उल्लेख करने तथा “आदिवासी राजा – फुदीचंद्र बखान, बांदुघाट अभिलेख में आदिवासियों का जिक्र किया है !
इसलिए इस द्विमुखी उद्देश्य- सिद्धि की साधना में लगने से प्रेमचंद जी के उपन्यास एक नवीन कोटि के उपन्यास तो समझे जा सकते हैं, जिन्हें हम उपयोगितावादी सामयिक उपन्यास कह सकते हैं ! परन्तु इनमें समाज का वह चित्र नहीं जो परिवर्तनशील न हो ! आंदोलन चाहे जैसे भी हों, आंदोलन ही हैं! वे मनुष्य के स्थानापन्न नहीं हो सकते ! उनका चित्रण मानुषीय चित्रण नहीं कहा जा सकता!
बेशक प्रेमचंद जी के उपन्यास केवल कल्पना की निस्सीम शक्ति से नहीं रचे गये, बल्कि बीती या बीतती हुई घटनाओं के प्रभाव से लिखे गये हैं फिर भी, इस कारण उनके पात्र नैसर्गिक और अप्रतिहत प्रकृति की गति से सर्वत्र नहीं चलते! उनमें स्थान -स्थान पर उन्हीं की प्रकृति को देखते हुए- कृत्रिम, अस्वाभाविक, और असम्भव आचरण की जड़ता आ जाती है ! भले इसे कुछ समालोचक आदर्शवाद कहें, लेकिन यह केवल बौद्धिक सिद्धांत कहा जा सकता है, और उपन्यासकार की कला इसके कारण वास्तव में उचित उत्कर्ष -साधन नहीं कर सकती ! क्योंकि प्रेमचंद जी की कलम ने जिस तरह देश के किसानों, गरीबों, को छुआ है, उस तरह देश के ” आदिवासियों ” की दशा-दिशा पर कहीं किसी उपन्यास में किसी रूप में सहानुभूति नहीं दिखाई ! जबकि” बुद्ध काल ” से लेकर ” मध्य काल ” तक – ” चुनारगढ़ ” से लेकर ” गिद्धधोर ” तक, न जाने कितने आदिवासी साम्राज्य के निशान हैं!
तो भी प्रेमचंद काल के तीन गुणों ने उन्हें बहुत ऊँचा स्थान दिया है ! पहला तो यह कि – उनकी घटनाएं इतनी घरेलू, सामयिक, और मर्मस्पर्शीनी हैं कि पढ़े और बेपढ़े, सभी मुग्ध हो जाते हैं ! दूसरे कथाकार की सहानुभूति किसानों और गरीबों के प्रति बहुत अधिक है, इसलिए इनके उपन्यास आदर के पात्र माने जाते हैं, और तीसरी बात यह कि इनकी भाषा ऐसी चलती है कोई भी पाठक उबता नहीं ! जो उपन्यास का सबसे बड़ा गुण है !
आज भी कुछ क्षमताशील लेखक लिख रहे हैं, जिनपर अपने काल के प्रतिनिधि लेखक – प्रेमचंद जी की शैली का आंशिक प्रभाव तो दिखाई पड़ता है, तथापि उनकी उपन्यास-कला को विकसित होकर स्थिर रूप धारण करने में देर है !
‘सुधाकर’
ये लेखक के निजी विचार हैं, इनसे हमारा कोई लेना-देना नहीं है…